31 दिसंबर 2013

आगत का स्‍वागत करो, विगत न जाओ भूल (2 कुण्‍डलिया छंद)

1-
आगत का स्‍वागत करो, विगत न जाओ भूल
उसको भी सम्‍मान से, करो विदा दे फूल
करो विदा दे फूल, सीख लो जाते कल से
तोड़ा यह भ्रमजाल, बँधा है कल साँकल से
कह 'आकुल' कविराय, कौन बन जाय तथागत
ले कर इक संकल्‍प, करो आगत का स्‍वागत।
2-
कुछ आँसू मुसकान से, विदा करें यह साल
आये खुशियों को लिए, और नया इक साल
और नया इक साल, करें संकल्‍प नया कुछ
नहीं बहुत की चाह, मिले पर अल्‍प नया कुछ
कह 'आकुल' कविराय, वर्ष भर हो गुणगान
जीवन तो आदर्श, कुछ आँसू मुसकान।



21 दिसंबर 2013

माँ ने कभी न हिम्‍मत हारी


माँ ने कभी न हिम्‍मत हारी
माँ ने कभी न हिम्‍मत हारी
कहते नहीं सुना दुखियारी।

बस कुछ न कुछ करते धरते
कदमों को न देखा थकते
पौ फटने से साँझ ढले तक
बस देखा है उम्र बदलते

हरदम देखी काम खुमारी
माँ ने कभी न हिम्‍मत हारी।

झाड़ू चौका चूल्‍हा चक्‍की
समय साधने में वह पक्‍की
नहीं पड़ी कोई क्‍या कहता
सोच लिया तो करना नक्‍की

पीछे रहती घड़ी बिचारी।
माँ ने कभी न हिम्‍मत हारी।

कपड़े धोना सीना पोना
दूध जमाना छाछ बिलोना
साफ सफाई की बीमारी
धोना घर का कोना कोना

समय पूर्व करती तैयारी।
माँ ने कभी न हिम्‍मत हारी।

सही समय पर हमें उठाना
नहीं उठें तो आँख दिखाना
घुटी पिलाती संस्‍कार की
पर्व त्‍योहारों को समझाना

घर भर है उसका बलिहारी
माँ ने कभी न हिम्‍मत हारी।

पास पड़ौस समाज सभी का
ध्‍यान रहे हर काम सभी का
हर खुशियों गम में शरीक हो
हाथ बँटाती सदा सभी का

बस ऐसे ही उम्र गुजारी।
माँ ने कभी न हिम्‍मत हारी।

बहिना की जब हुई सगाई।
खुशियों से फूली न समाई।
दौड़-दौड़ दुगुनी हिम्‍मत से
उसकी पल में करी बिदाई।

फि‍र टूटी पर उफ न पुकारी।
माँ ने कभी न हिम्‍मत हारी।

पापा के कंधे से मिल कर
हाथ बँटाया हँस खिल-खिल कर
हर मुश्किल आसान हो गई
बड़े हो गये हम कब पल कर

समझ गये माँ की खुददारी
माँ ने कभी न हिम्‍मत हारी।

आई बहू न कुछ भी बदला
कहती धी ने चोला बदला
अपने घर हैं कौन कुटुम्‍बी
ईन मीन चारों का कटला

कहती अब गूँजे किलकारी।
माँ ने कभी न हिम्‍मत हारी।।

12 दिसंबर 2013

सोचती रहती दिल्‍ली

दे कर मौका एक अभी तो दूर है दिल्‍ली
न देती तो क्‍या करती सोचती रहती दिल्‍ली

कुछ में है विश्‍वास कुछ कर जायेंगे।
पढ़े लिखे हैं देखें कुछ तर जायेंगे।
वादे तो सब करते हैं जो करते कोशिश
चिकने घड़े नहीं हैं कुछ ठहर जायेंगे।

ले के वादा एक कहीं उड़े न खिल्‍ली
न देती तो क्‍या करती सोचती रहती दिल्‍ली।
  
बैठ पक्ष में ‘आप’ जाय और राज करे
शर्त यही है कि बस ना नाराज करे।
बिल्‍ली के ही भाग्‍य सही टूटा है छींका
मुद्दों पे कर के गठजोड़ ’आप’ ही राज करे।

दे सौगात एक दूर तो नहीं है दिल्‍ली
अब तो  बस यह ही सोचती रहती दिल्‍ली।

5 दिसंबर 2013

नवभारत का स्‍वप्‍न सजाएँ

आओ हम फि‍र, नवभारत का, स्‍वप्‍न सजाएँ।
नई उमंगों से, हम सब, जन-गण-मन गाएँ।
मूलभूत आवश्‍यकताओं पर, समझौते न हों,
स्‍वच्‍छ सुशासन हो, हम ऐसा, वतन बनाएँ। 

जन-प्रतिनिधि ऐसे हों, जो महसूस करादें।
कफ़न बाँध सिर निकलें, करके ठोस कवायदें।
अब न चलेगा भ्रष्‍टाचारी, ढुलमुल शासन,
गिद्ध-दृष्टि जिसकी है, उसको सबक़ सिखादें।

ऐसी युवाशक्ति‍ से सज्जित, सदन बनायें।
आओ हम फि‍र, नवभारत का, स्‍वप्‍न सजाएँ।

संकल्पित हो, जन जाग्रति का, श्रीगणेश हो।
नई योजनाओं से उत्‍साहित, हर प्रदेश हो।
धरती सोना उगले, नदियाँ बहें दूध की,
वृक्षों से आच्‍छादित, हर इक उपनिवेश हो।

नंदन कानन हों अरण्‍य, वन सघन बनाएँ।
आओ हम फि‍र, नवभारत का, स्‍वप्‍न सजाएँ।

गुरुकुल हों विकसित, शिक्षा का नवीकरण हो।
न्‍याय व्‍यवस्‍था सुधरे, श्रम का ध्रुवीकरण हो।
पशुधन, ग्राम्‍य विकास, हो चहुँ-दिश, हरित क्रांति,
प्रगति करे हर क्षेत्र, ऐसा समीकरण हो।

रामराज्‍य आए, हम ऐसा, हवन करायें।
आओ हम फि‍र, नवभारत का, स्‍वप्‍न सजायें।

बने राष्‍ट्र अब, सूर्य अस्‍त हो, जहाँ कभी ना।
क्षितिज धरा से मिले, गर्व से ताने सीना।
हिमगिरि जिसका मुकुट, समंदर जिसकी बाहें,
विरुदावली गायें युग, यह इतिहास कहीं ना।

पुन: बने इतिहास, अनोखा कुछ कर जायें।
आओ हम फि‍र, नवभारत का, स्‍वप्‍न सजाएँ।

27 नवंबर 2013

सर्दी पर 2 कुण्‍डलिया छन्‍द

सर्दी दिखलाने लगी, अब तेवर दिन रात।
बिना रजाई रात में, अब न बनेगी बात।
अब न बनेगी बात, बिना स्‍वेटर के भाई।
मफलर टाई कोट, धूप में है गरमाई।
कह ‘आकुल’ कविराय, न करती यह हमदर्दी।
खाओ पहनो गर्म, बचाती हरदम सर्दी।







हर मौसम में मधुकरी, लगती है स्‍वादिष्‍ट।
पर जाड़े में और भी, करती है आकृष्‍ट।
करती है आकृष्‍ट, साथ गट्टे की सब्‍जी।
लहसुन वाली दाल, कभी ना होए कब्‍जी।
कह 'आकुल' कविराय, माँगती पानी मन भर।
सर्दी में बदनाम, लुभाती फि‍र भी मन हर।

मधुकरी- बाटी

6 नवंबर 2013

अनगिन सपने पलने लगे

जाते ही नवरात
दीप त्‍योहारों के सजने लगे
अनगिन सपने पलने लगे

मौसम ने ली अँगड़ाई
बौछारों ने करी सफाई
पथ पगडण्‍डी गली चौक
रंग रोगन और पुताई
खुशियों के मधुमास खिले
कलियाँ चटकीं गदराई
मन मयूर नाचे तक-धिन्
भॅवरों ने पींग बढ़ाई

चौपालों में रात
ढप ढोल चंग बजने लगे
अनगिन सपने सजने लगे
  
भले रोशनी है नकली
रातों में टिम-टिम तारों सी
भले लगे दिन में वह बेदम
लटकन वन्‍दनवारों सी
पर द्वार सजे हैं हर
आशा पालव के झालर हारों सी
जहाँ झूलती संस्‍कृति और
सभ्‍यता चंचल धारों सी

गाँवों की सौगात
खेत खलिहान आज फलने लगे
अनगिन सपने पलने लगे

शहरों की दीवाली
बारूदों के बीच मनाते
गाँवों में पशुधन फसलों के
सँग सपने सहलाते
जीवन का संगीत
तीज त्‍योहारों पर भर जाते
पर शहरों के नकलीपन
जीवन का रंग मिटाते

तो भी गाँवों के हाथ
आज शहरों को बढ़ने लगे
अनगिन सपने पलने लगे।

2 नवंबर 2013

दीपावली 2013 की शुभकामनायें


दीप दीप से जब मिले, बढ़े प्रकाश अनन्‍त।                 घर घर दीप जलाइये, रोशन हो हर द्वार।
बढ़े संस्‍कृति प्रेम से, कहते नामी सन्‍त।।                    गले गले मिल जाइये, छोड़ वैर तकरार।।
कहते नामी संत, द्वेष औ वैर मिटाओ।                 छोड़ वैर तकरार मिला क्‍या है लड़ भिड़ कर।
हर उत्‍सव त्‍योहार, सिखाते मिलो मिलाओ।।              हो कर के बेचैन, जिया जीवन डर डर कर।।
कह ‘आकुल’ कविराय, रसोपल मिले सीप से।         कह ‘आकुल’ कविराय, जियो जीवन मिलजुल कर।
मन हर्षे खिल जाय, दीप जब मिले दीप से।।           श्रीगणेश कर आज, मिलो जा कर के घर घर।।

10 अक्तूबर 2013

मन के कहीं बसेरे होते

मन के कहीं बसेरे होते
ना उड़ते बन यायावर
अपनों से ना होते दूर।

गगन कुसुम की चाहत इतनी
दूर गगन भी छाँव लगे
राह भले ही आग धधकती
और जिन्‍दगी दाँव लगे
धता बताते पलकों के पर
चंचल मन के पाँव लगे
चंद्रकला सी अभिलाषाएँ
प्‍यासे मरुधर गाँव लगे

मन के कई न चेहरे होते
नहीं ढूँढ़ते चारागर
अपनों में होते मशहूर।

दीवानापन खोता आया
चैन दिहाड़ी सा जीवन
धूल-धमासा, गिट्टी रोड़ी
खाली हाँड़ी सा जीवन
साँस-साँस की गति ताल में
फि‍र भी ताड़ी सा जीवन
नशा भरे अपने ही पाँवों
मार कुल्‍हाड़ी सा जीवन

न के नहीं अँधेरे होते
ना छिपते तब ज्‍यादातर
अपनों से रहते क्‍यों दूर

27 सितंबर 2013

तो खुशहाली आए

भरमजाल अब हटे
श्‍हर का तो खुशहाली आए
मिलेंगे अपने हुए पराए।

गाँवों की पगडण्‍डी छोड़ी
वृक्षावलि की छैंया छोड़ी
घर का आँगन देहरी छोड़ी
जहाँ पर लगी छदाम न कौड़ी

छाछ मखन दधि दूध बिसारे
गिल्‍ली डण्‍डे बेर कटारे
पथरीले पथ पर चलने को
कैसे मन ना रोक सका रे

मोहजाल अब हटे
शहर का तो खुशहाली आए
ॠण तू सूद सहित लौटाए।


पर्वों त्‍योहारों पर जोड़ी
बची हुई है ऊर्जा थोड़ी
ब्‍याह में दिखती अब ना घोड़ी
भूली बहुएँ नथ और तोड़ी

परिहारों से रिश्‍ते होते
रिश्‍तों की ऊर्जा को खोते
माया के सब ढोंग धतूरे
नकली चेहरों को सब ढोते

मकड़जाल अब हटे
शहर का तो खुशहाली आए।
गाँव तब स्‍वर्ग धरा बन जाए।

24 अगस्त 2013

देश मेरा खुशहाल है

जोश अभी भी नहीं हुआ कम
देश मेरा खुशहाल है।

भ्रष्‍टाचारी दलदल में भी
कमल खिल रहे देश में
आम आदमी मेहनतकश है
खास जी रहे ऐश में
सबको खुश करते ही उमरिया
हुई छियासठ साल है।

आदर्शों की गठरी ले कर
खड़ा कबीर बजार में
बापू के बंदर भी दिखते
भीड़ भरी कतार में
बीज संस्‍कृति का रोपा जो
बना वो वृक्ष तमाल है।


हवा चले कितनी कैसी भी
फहरायेगा शान से
ध्‍वज मेरे भारत का हरदम
जन गण मन के गान से
सत्‍यमेव जयते ब्रह्मास्‍त्र
वंदेमातरम् ढाल है।

26 जुलाई 2013

डाली चम्‍पा की

बीज बिना लग जाती है
डाली चम्‍पा की।

बिन जाने पहचाने
भा जाता है कोई
अपना सा लगने
लगता है कोई बटोही
खुशबू ने कब दिया
किसी को कोई बुलावा
किसे पता कब कर
जायेगा कोई छलावा

शिखर चढ़ा जाती है
पाती अनुकम्‍पा की।

बौछारों से हरियाली
दिन दूनी बढ़ती
थोड़ी सी खुशहाली
अमरबेल सी चढ़ती
आशाओं के नीड़
बसाते पंखी रोज
काक बया की करते हैं
बदहाली रोज

काल कभी भी बन जाती है
व़ृष्टि शंपा की।

1-7-2013
को अनुभूति में प्रकाशित
25-07-2013 
को नवगीत की पाठशाला में प्रकाशित