बीज बिना लग जाती है
डाली चम्पा की।
बिन जाने पहचाने
भा जाता है कोई
अपना सा लगने
लगता है कोई बटोही
खुशबू ने कब दिया
किसी को कोई बुलावा
किसे पता कब कर
जायेगा कोई छलावा
शिखर चढ़ा जाती है
पाती अनुकम्पा की।
बौछारों से हरियाली
दिन दूनी बढ़ती
थोड़ी सी खुशहाली
अमरबेल सी चढ़ती
आशाओं के नीड़
बसाते पंखी रोज
काक बया की करते हैं
बदहाली रोज
काल कभी भी बन जाती है
व़ृष्टि शंपा की।
1-7-2013
25-07-2013
को नवगीत की पाठशाला में प्रकाशित
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