समय
नहीं है कहना यह, नज़ीर बस बतौर है।
एकजुट होना ही होगा, आँधियों का दौर है।
बिजलियाँ गिरती रहें, हो ख़ूँ-ख़राबा रात-दिन,
आम आदमी को है, फुरसत कहाँ बलवा करे,
ज़हर रग-रग में है, बैठता ही जा रहा ‘आकुल’,
एकजुट होना ही होगा, आँधियों का दौर है।
कितनी
गिनाएँ खामियाँ, कब तलक़ चर्चे करें,
हर
सियासी दौर में, इनका ठिकाना ठौर है।
बिजलियाँ गिरती रहें, हो ख़ूँ-ख़राबा रात-दिन,
बँटे
ध्यान, ज़ालिमों का ये तरीक़ा तौर है।
आम आदमी को है, फुरसत कहाँ बलवा करे,
होता किसी की शै पे ये, अंजाम क़ाबिले ग़ौर है।
ज़हर रग-रग में है, बैठता ही जा रहा ‘आकुल’,
है
हक़ीक़त और कुछ, अंदाज़े बयाँ और है।
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