कुण्डलिया
(1)
(1)
करूँ खूब परमार्थ, बने जड़बुद्धि चेतन।
सबको दे सद्बुद्धि, न कोई हो निश्चेतन।
ऐसा
वर दो मातु, रहें सब सुख से प्राणि।
शब्द
ज्ञान विस्तार, हो सबका वीणापाणि।।
(2)
वर दो ऐसा शारदे, नमन करूँ ले आस।
हटे तिमिर अज्ञान का, और बढ़े विश्वास।
और बढ़े विश्वास, ज्ञान की गंगा जमुना।
बहे हवा साहित्य, सुधारस की किं बहुना।
कह 'आकुल' कविराय, मधुमयी रसना कर दो।
वैर द्वेश हों खत्म, शारदे ऐसा वर दो।।
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