तन मन जन घबराय।
कब गरमी की रुत जाय।
लाय भरी जब चले पवन
तन मन पिघला जाये।
जेठ दुपहरी तपे अगन
सी
रैन अषाढ़ जलाये
बचपन जाने कहा
ग्रीष्म
कहा धूप तपन और लाय।
पीठ अलाई गीले बिस्तर
रात गुनगुनी तारे
गिन गिन
हाथ बिजौना रात न
छूटे
करवट बदलें पलकें
छिन छिन
गाय भैंस रँभाय।
दूर कूक कोयल की सुन
नाचे मन मयूर गुनगुन
छिटपुट मेघों के
कतरे
छाये नभ छितरे छितरे
अभी कहाँ सावन की
आहट
ढांढ़स कौन बँधाय।
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