गीतिका
छंद- कुंडल
पदांत- में
समांत- ओली
देखा माँ को भाई, धी हमजोली में।
ईश्वर दिखता उसकी, सूरत भोली में।
माँ का नेह कभी कम, ना देखा चाहे,
रहती महलों में हो, या वह खोली में।
रहती बसी हुई हर, दम यादें उसकी,
जैसे खुशबू माथे, चंदन रोली में।
प्रेम
लुटाती आई है, वह जीवन भर,
मधुरस बिखरे उसकी, मीठी बोली में।
पर्वोत्सव दीवाली, होली पर बनती,
सदा दिखाई देती, है रंगोली में।
माँ तो बेटे-बेटी, दोनों की होती,
कहाँ भेद करते हम, आँख-मिचोली में
उऋण रहा हूँ उऋण रहूँगा जीवनभर,
देना जनम प्रभू उस, की ही झोली में।
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