22 मार्च 2013

किस‍लय दिनों की होली


याद आती है
किस‍लय दिनों की होली।

काठ कबाड़ लकड़े झाड़ी
ऊपलों की माला ढेर करना
होरी डाँड़े को गाड़ कर
मोहल्‍ले में चंदा इकट्ठा करना
होरी की रात में बनती
चारों तरफ रंगोली
हमारे कोतूहल के बीच
फि‍र जलती होली

वो जिद पिचकारी की
भरी बाल्‍टी रंग से
नहीं तो पानी से ही
किसी पर फैंकना उमंग से
निशाना लगे न लगे
उछल उछल कर कहना
होली है होली

घर पर कोई आता
लाड़ से गालों पे लगाता
सिर पर रंग भर जाता
नन्‍हें हाथों से
चुभती दाढ़ी पर
रंग लगवाता
भर जाता रंगों से
हमारी झोली

हुड़दंग, ढोल, नगाड़े
टोली, फटे कपड़े
जबरदस्‍ती,
देवर भाभी की चुहल
भंग का रंग और
होली की हँसी ठिठौली
सब वैसी ही है
सपनों सी आँख मिचौली
जैसी कल थी होली

कभी रू, कभी गुलाल
कभी स्‍याही, पर अब
रंगे दिखते हैं एक समान
मेरी उम्र की होली पर
पैरों पर डाल के रंग गुलाल
सभी करते हैं सम्‍मान
पर आज भी बच्‍चों की
निश्‍छल, निस्‍स्‍वार्थ
उत्‍साह और उमंग की
अनुपम है होली

याद आती है
किसलय दिनों की होली।

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