एक समय था, हुई शाम चौपालें सजती थीं गाँवों में.
दुख-सुख के चर्चे होते, बरकत भी रहती थीं गाँवों में,
था जुड़ाव पशुधन से घर के प्राणी जैसे वे रहते थे ,
धरा, प्रकृति, खलिहान, खेत से थाती बनती थी गाँवों में.
मुक्तक
एक समय था, था महत्व गावों में पशुधन का घर-घर में.
थे अनुकूल प्रकृति से सारे, विधि-विधान साधन घर–घर में.
आज मगर तकनीकी साधन-संसाधन के हुए अतिक्रमण,
पशुधन हैं
आवारा पहुँचा तकनीकी ईंधन घर-घर में.
मुक्तक
ताल ,सरोवर, कुंड, कुए, बावड़ियों से था प्रचुर जलोद्भव.
हरी भरी खेती, वन, उपवन, पशुधन सब पर्याप्त सुगम थे,
मानव के दिन रात प्रकृति के संग गुजरते थे हर संभव.
मुक्तक
एक समय था क्रय विक्रय की अनुपम विधि थी सब गाँवों में.
हर सप्ताह हाट लगते थे, रौनक मेले सी होती थी,
सीमित आवश्यकतायें थी, संतोषी थे सब गाँवों में.
मुक्तक
एक समय था, शिक्षा के, सोपान न चढ़ पाती थी नारी.
घर की ड्योढ़ी के ही भीतर, उम्र खपा देती थी नारी.
पर सर्वस्व निछावर कर, धरती के लाल दिये
नारी ने,
संस्कार की धूप में तप कर, कुंदन बन जाती थी नारी.
मुक्तक
एक समय था मर्यादाओं, में बँधकर रहती थी नारी.
बेटे-बेटी में अंतर को, घुट घुट कर सहती थी नारी.
आज जहाँ बेटी ने जग में, चहूँ दिशा ध्वज फहराया है,
यह नारी के तप का है, परिणाम धैर्य रखती थी नारी
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