भीड़ ही भीड़ है
चारों तरफ है आदमी।
चलता ही जा रहा है बस
थकता नहीं है आदमी।
वाहनों की दौड़-भाग से
नहीं इसे परहेज
न द्वेष रखता है सहेज
इसका तो अपना ध्येय है
पीढ़ियों से अपराजेय है
फिर भी देवताओं सा
लगता नहीं है आदमी।
इसकी अभिलाषाओं का
कभी न अंत होना है
कभी न तृप्त होगा यह
अभी न संत होना है
अभी इसे विकास के
सोपानों पे चढ़ना है शेष
गगन गिरा, गगन कुसुम
बागानों पे चढ़ना है शेष
रुकता नहीं है आदमी।
खाली ही हाथ आया है
खाली ही हाथ जाएगा
प्रकृति के दस्तूर को
कभी न तोड़ पाएगा
कैसा आकर्षण इसे
बाँधे हुए है आज तक
धरा की है महानता
साधे हुए है आज तक
इसकी दुर्दशा को बस
तकता नहीं है आदमी।
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