छंद-
आल्ह
विधान-
31 मात्रा, 16, 15 पर यति, अंत गुरु-लघु (2,1) से
पदांत-
0
समांत-
अंध
कैकेई का हठ, कुंती का, मौन द्रोपदी की सौगंध.
उँगली उठी, हुए हैं छलनी, उसके जब-जब भी संबंध.
नारी अबला, बला बनी है, दाँव बनाया खेले द्यूत,
हैं इतिहास साक्षी’ नदियों, ने भी तोड़े हैं
तटबंध.
अग्नि परीक्षा भी दी है हर, युग में हुई प्रताड़ित
खूब,
हुई तिरस्कृत कहीं मंथरा, बनी गांधारी भी अंध
बनी मत्स्यगंधा, विषकन्या, वारवधू, दासी अरु
धाय,
फिर भी सत्ता में लक्ष्मी ने, किया समन्वय
अर्थ प्रबंध.
बनी अर्द्ध नारीश्वर तब ही, चली पुरुष के संग
सदैव
समझो इसे चरित्तर या है, ईश्वर से इसका अनुबंध.
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