छंद- विधाता
धरा ने मौन ही रह कर, दिया ही है युगों से पर,
पदांत- है
समांत- आनी
चलो जीवन सँवारे इस तरह से आज ठानी है
स्वत: मौसम बदलते हैं स्वत: ढलती
जवानी है.
कहाँ जंगल रहें सूखे, कहाँ पर्वत पे’
हैं बस्ती,
न जाने कौन देता है, सभी को दाना’
पानी है.
कहाँ से आग सूरज को मिले है, चाँद
क्यों शीतल,
न चमके चाँदनी नित क्यों, न रोशन
रातरानी है.
समंदर से लिये चलते हैं कैसे मेघ
पानी भर,
हवा दिखती नहीं कैसे न ही दिखती
रवानी है.
धरा ने मौन ही रह कर, दिया ही है युगों से पर,
नहीं पंछी बदलते राह खुश हैं
गुनगुनाते नित
मगर हम ही सदा बदले हैं हर युग की कहानी
है.
बनायें खूब अभयारण्य, उपवन और जंगल
भी,
न हो कमजोर सीमा बाड़ अब ऐसी लगानी
है.
धरा को स्वर्ग कर दें क्रांति हिंदुस्तान
में लाकर,
बने फिर सोनचिड़िया वह जुगत ऐसी
लड़ानी है.
चलो हम सब धरा जंगल, पहाड़ों को
सजायें फिर,
प्रगति की गीतिका हर रोज पीढ़ी को
सुनानी है.
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