( दोहा का स्वरूप 13 // 11 अंत में s। में आवश्यक और पदांत तुकान्त हो)
मापनी 4432या 33232 // 443 या 3323)
1
सोने को धरती मिले, यायावर हो ढंग,
इतना ही चाहूँ वसन, ढकने को बस अंग.
बनूँ कभी न अशक्त प्रभु, देना इतना अन्न,
तेरे गुण गाता रहूँ, देना बस सत्संग,
2
क्या ले जाना है प्रभू, आया खाली हाथ.
तेने भेजा है यहाँ, तू ही मेरा नाथ,
चाह नहीं धन धान्य की, रहूँ सदा नि:स्वार्थ,
काम सभी के आ सकूँ, देना मेरा साथ.
3
अनाचार करता वही, जो रहता स्वच्छन्द.
खुश रहता वह सर्वदा, जो रहता पाबन्द.
समय संग चलता नहीं, वो पिछड़ा दिन-रात,
धोखा खाता और भी, हो न चाक-चौबंद.
4
दलदल में पलता कमल, होता इक सदबर्ग
अपना अपना गुण रखें, सबका अपना स्वर्ग
क्या पानीफल नारियल, क्या बदाम अखरोट,
चमत्कार ऐसे कई, रखे सहेज निसर्ग.
1
सोने को धरती मिले, यायावर हो ढंग,
इतना ही चाहूँ वसन, ढकने को बस अंग.
बनूँ कभी न अशक्त प्रभु, देना इतना अन्न,
तेरे गुण गाता रहूँ, देना बस सत्संग,
2
क्या ले जाना है प्रभू, आया खाली हाथ.
तेने भेजा है यहाँ, तू ही मेरा नाथ,
चाह नहीं धन धान्य की, रहूँ सदा नि:स्वार्थ,
काम सभी के आ सकूँ, देना मेरा साथ.
3
अनाचार करता वही, जो रहता स्वच्छन्द.
खुश रहता वह सर्वदा, जो रहता पाबन्द.
समय संग चलता नहीं, वो पिछड़ा दिन-रात,
धोखा खाता और भी, हो न चाक-चौबंद.
4
दलदल में पलता कमल, होता इक सदबर्ग
अपना अपना गुण रखें, सबका अपना स्वर्ग
क्या पानीफल नारियल, क्या बदाम अखरोट,
चमत्कार ऐसे कई, रखे सहेज निसर्ग.
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