8 मई 2024

चल अब साँझ हुई जीवन की

 गीतिका
छंद- सार
पदांत- रे
समांत- अड़ी

चल अब साँझ हुई जीवन की अब है रात बड़ी रे।
ढूँढ सका ना अब तक मानव, संजीवनी जड़ी रे।

घर-सम्‍बन्‍धी, यार-मीत क्‍या, गाँव-शहर-खेड़ों की,
मिल कर विदा करेंगे आती सबकी अंत घड़ी रे।

करम किए खोटे-सच्चे मति, वैसी ही थी पाई,
त्‍याग मोह-माया-लालच ये दु:खों की तिकड़ी रे।  

प्रायश्चित ही करना है तो, कर तू प्रथम समर्पण,
पी कर बूँद चार गंगा की, छोड़ यहीं पगड़ी रे।

ना जाए धन-विद्या-वैभव, जाना खाली हाथों,
भज तू हरि को ये बदलेगा, गुदड़ी जो उधड़ी रे।

मिलना और बिछड़ना जग में रीत यही दुनिया की,
जीते जी का है यह खेला, छोटी सी जिंदड़ी रे।

रखा अमोघ अभेद्य अस्‍त्र है, अपने पाले ‘आकुल’,
करे नियंत्रित युगों-युगों से, उससे प्रकृति खड़ी रे।

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें