11 अप्रैल 2018

एक समय था (मुक्‍ता माला-1)

मुक्‍तक
एक समय था तप, उपासना, योग, शांति के थे सुख साधन.
धरती पर थे खूब सघन वन, गुरुकुल संकुल, थे गोचारण.
पर विकास के पथ पर चल नीरवता खोई सबसे पहले, 
जबसे हमने छला प्रकृति को खोया है हमने अपनापन.
मुक्‍तक
एक समय था घर, परिवार, समाज, सभी थे अनुशासन प्रिय
अपने-अपने उत्‍तरदायित्‍वों, कर्तव्‍यों में थे सक्रिय.
पर जबसे घर की लाँघी है लक्ष्‍मण रेखा हुए अकेले,
सक्रिय हुई शक्तियाँ कलुषित पड़ी हुई थीं अब तक निष्क्रिय.
मुक्‍तक  
एक समय था दोहा, चौपाई, कवित्‍त का खूब चलन था.
छंद शास्‍त्र निष्‍णात सुकवि थे, हर फन का स्‍वच्‍छंद गगन था. 
चाटुकारिता, व्‍यंग्‍य, हास्‍य समृद्ध हुए आयोजन अब तो,
मुक्‍त छंद कविताएँ भी नाचें जहाँ छंदों का बंधन था.
मुक्‍तक
एक समय था प्रकृति शांत थी, शांत ही था तन में जठरानल.
आज विषैले हुए आदमी जीते हैं पी कर हालाहल.
वायु प्रदूषण, शोर प्रदूषण, बढ़ते, नित साधन-संसाधन,
धरती से आकाश तलक पहुँचा है तकनीकी कोलाहल.
मुक्‍तक
एक समय था घर का ही भोजन करते थे मिल जुल कर ही.
भोजन भी स्‍वादिष्‍ट हुआ करता था, खाते थे ससमय ही.
पर जब से बाहर बाजारों में खाने का शौक लगा,
चरते है पशुओं की भाँति हम सब दिन भर चाहे जब ही

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