
विजयी जश्न मनाने
अनगिन दीप जले।।
भूल द्रोह फिर गले मिलें अब
कब तक शिकवे गिले पलें अब
रहना एक छत्र छाया में
अपना घर फिर अपना घर है
एक हवा है एक फज़ा हैं
एक दवा है एक सज़ा है
रहना है जब साथ साथ
अपना वतन फिर अपना वतन है
आया है फिर तंग दिलों को
निस्पृह गले लगाने
अनगिन दीप जले।।
फिर बस जायेंगे रीते दिन
फिर बस जायेंगे उनके बिन
कौन अमर है यही नियति थी
अपनापन फिर अपनापन है
तिमिर हटा के प्रकृति सजी है
महाकाल की अवंति सजी है
मानव मन फिर मानव मन है
आया है फिर श्रांत दिलों को
जीवन गीत सुनाने
अनगिन दीप जले।।
कल जो हुआ न अब होना है
जो खोया न अब खोना है
पीछे तो है भूत भयावह
अपना पतन फिर अपना पतन है
उत्सव तो मन भेद भुलायें
दूर हुओं को पास बुलायें
परिवर्तन फिर परिवर्तन है
आया है फिर सुप्त दिलों को
इक नवगीत सुनाने
अनगिन दीप जले।।