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11 दिसंबर 2016
सान्निध्य सेतु: इस वर्ष का स्व0 गौरीशंकर कमलेश राजस्थानी भाषा पु...
सान्निध्य सेतु: इस वर्ष का स्व0 गौरीशंकर कमलेश राजस्थानी भाषा पु...: सारस्वत सम्मान प्रोफेसर औंकारनाथ चतुर्वेदी, वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरविंद सोरल और श्री रामेश्वर ‘रम्मू भैया’ को राजस्थानी उपन...
10 दिसंबर 2016
भारत माता
(कुकुभ छंद) गीतिका
गीतिका है इसलिए पदांत और समांत अनिवार्य हैंं. दो दो पद में तुकांत
(विषम चरण में) का नियम है. अर्द्ध मात्रिक छंद 2222 2222 // 2222 222 (16-14) अंत में दो लघु के बाद दो गुरु अनिवार्य, अंतरा विधा से मुक्त रखा जा सकता है.
पदांत- धरती है भारत माता,
समांत- आनों की।

रणबाँकों के बलिदानों की, धरती है भारत माता
आजादी के दीवानों की धरती है भारत माता.
गंगा-यमुना की संस्कृति से पोषित है भारत माता
ऋषि मुनियों की संतानों की धरती है भारत माता.
उत्ताल तरंगों से देता है जोश समंदर तीन तरफ,
हिमगिरि के सुदृढ सानों की धरती है भारत माता.
वेद पुराणों उपनिषदों और’ रामायण की गाथाओं,
अवतारों के अवदानों की धरती है भारत माता.
गाते हम स्वतंत्रता और’ गणतंत्र दिवस के अवसर पर
उन आजादी के गानों की धरती है भारत माता
राष्ट्रीय’ पर्वों त्योहारों पर गले मिलें मंदिर मस्जिद
सर्वधर्म के सम्मानों की धरती है भारत माता
‘आकुल’ निर्भय फहराये ध्वज, चैन अमन की पवन चले
देश प्रेम के दीवानें की धरती है भारत माता.6 दिसंबर 2016
वतन फूले फले
हरिगीतिका छंद पर आधारित गीतिका/गीत
मापनी 221 2221 2221 2221 2
जो पर्वतों की तरह रह कर, अटल सरहद पर चले
उनको डिगा सकता नहीं, तूफान हों या जलजले.
रखते जिगर फौलाद का, फरहाद से हों हौसले
जो चीर कर पर्वत नहर दे, तख्त की खातिर पले.
यह भूूमि है अवतार और, वेदों पुराणों की धरा
इसके लिए बलिदान भी, करना पड़़े़े तो कर चले.
खोते नहीं जाँँबाज मौका, दुश्मनों के वार का
पीछे ने करते वार वीर, इससे तो जान'वर भले.
चैनो अमन से वतन में, आती बहारों रौनकें
'आकुल' चढ़े परवान धरती, और वतन फूले फले.
30 नवंबर 2016
कुछ कर गुजर जाइये (चार मुक्तक)
1
बैठने से बचिए, कुछ भी कर गुजर जाइये.
सोचना क्या चलिए कुछ भी कर गुजर जाइये.
कल की चिन्ता छोडि़ये, आज सँवार लें 'आकुल',
अब ठानिए,उठिए कुछ भी कर गुजर जाइये.
2
कितने हैं स्वच्छंद ये पंखी, दूर अम्बर तक भरें उड़ान.
कितनी हैं स्वच्छंद हवाएँँ, देेश-देशान्तर करें प्रयाण.
कितना है मन भी स्वच्छंद यह', प्रकृति संग भागा करता है,
कितनी है स्वच्छंद प्रकृृति यह, पहनती हर रुत का परिधान.
3
समय ने हौसले दिये हैं, बहुत कुछ कर जाना है.
पढ़ना भी है, इक पल भी खाली नहीं गँवाना है.
भाग्य है कि बहाने भी नहीं करने देता 'आकुल',
सोच लिया है मुझे हर हाल में मंजिल पाना है.
4
भूकम्प, आपदाओं से सबका दिल दहल जाता है.
अकर्मण्यता से अकसर मौका हाथ से निकल जाता है.
हवा के इक झौंके में ढह' जाते हैं ताश के महल 'आकुल',
जो कुछ कर गुजरता है, समय उनका भाग्य बदल जाता है.
बैठने से बचिए, कुछ भी कर गुजर जाइये.
सोचना क्या चलिए कुछ भी कर गुजर जाइये.
कल की चिन्ता छोडि़ये, आज सँवार लें 'आकुल',
अब ठानिए,उठिए कुछ भी कर गुजर जाइये.
2
कितने हैं स्वच्छंद ये पंखी, दूर अम्बर तक भरें उड़ान.
कितनी हैं स्वच्छंद हवाएँँ, देेश-देशान्तर करें प्रयाण.
कितना है मन भी स्वच्छंद यह', प्रकृति संग भागा करता है,
कितनी है स्वच्छंद प्रकृृति यह, पहनती हर रुत का परिधान.
3
समय ने हौसले दिये हैं, बहुत कुछ कर जाना है.
पढ़ना भी है, इक पल भी खाली नहीं गँवाना है.
भाग्य है कि बहाने भी नहीं करने देता 'आकुल',
सोच लिया है मुझे हर हाल में मंजिल पाना है.
4
भूकम्प, आपदाओं से सबका दिल दहल जाता है.
अकर्मण्यता से अकसर मौका हाथ से निकल जाता है.
हवा के इक झौंके में ढह' जाते हैं ताश के महल 'आकुल',
जो कुछ कर गुजरता है, समय उनका भाग्य बदल जाता है.
28 नवंबर 2016
जीवन की शाम
पदपादाकुलक चौपाई
(राधेश्यामी)
32
मात्रा पंक्ति रचित मुक्तक
******************************
जब
से जीवन की शाम हुई, मैं समय नहीं बिसराता हूँ.
तड़के
उठ जाने से लेकर, सोने तक कलम चलाता हूँ.
धोना
खाना न्हाना सब कुछ, दिनचर्या से कर पाता हूँ.
घर
में हम ईन मीन दो हैं, कर लेते हैं जिससे जो हो,
जैसे
ही आयें भाव कहीं, झट उन पर कलम चलाता हूँ.
बस
इसीलिए मैं रोजाना, लिख पाता हूँ कविता,मुक्तक,
है
मुक्तक-लोक बना साथी,जिसके सँग मन बहलाता हूँ.
कहते
हैं जहाँ नहीं पहुँचे, रवि बैठा पाता हूँ कवि को.
बस
इसी प्रेरणा से ‘आकुल’, मैं लिख कर ऊर्जा पाता हूँ.
26 नवंबर 2016
जीवन नैया

(गीतिका)
मेरी
जीवन नैया भी अब डग-मग बहती रहती है.
श्वास
लहर लहरों सेे भी अब लगभग डरती रहती है.
जब
जब आए ज्वार किनारे पर सहमी सी डरी हुई,
तंग
थपेड़ों को हरदम अब डग-डग सहती रहती है.
जब
भी रहते मेरे सँग मेरे संगी साथी दिन भर,
यादों के सँग आँँखें भी अब डब-डब बहती रहती है
कभी
नहीं था ऐतराज मुझको जाने अनजानों से,
केवट आँँखें दुनिया के अब रँग-ढँग पढ़ती रहती है
मोह
माया महत्वाकांक्षाएँ नहीं छूटतीं जीवनभर,
रोज
बहाने नाम धाम अब पल-पल धरती रहती है
बचपन और जवानी तो यूँ निकल गए गिरते पड़ते,
गिरूँ-पड़ूँ
नहीं शेष उमर अब जब-तब कहती रहती है.
अब भी बीच सफर में जब तूफानों के तेवर देखूँ,
आशंकाएँ ‘आकुल’ की अब धक-धक बढ़ती रहती है.25 नवंबर 2016
अंत हो
छंद-
आनंदवर्धक छंद
मापनी
2122 2122 212
पदांत- हो, समांत-अंत
अभ्युदय की
वांछना, अत्यंत हो.
सत्यमेव जयते, जय जयकार हो,
अतिथि देवोभव, प्रथा विजयंत
हो.
धर्म की भी हो
अब, पुनर्स्थापना,
न्याय
सर्वोपरि, मरण पर्यन्त हो.
आज पीढ़ी हो
रही है, मार्ग-च्युत,
सन्मति हवन
करें, पीढ़ी पंत हो
लेंं फिर इस धरा
पर, जनम युगंधर,
आकुल अब सदैव, यहाँ बसंत हो.
आकुल अब सदैव, यहाँ बसंत हो.
21 नवंबर 2016
मौन रहेंगे
रोला छंद गीतिका (11 X 13 )
जीवन है विषकूट, पियेंगे मौन रहेंगे.
घात और प्रतिघात, सहेंगे मौन रहेंगे.
कलियुग के अवसाद, ग्रहण में इस जगती को,
और धधकता देख, जलेंगे मौन रहेंगे.
और धधकता देख, जलेंगे मौन रहेंगे.
हम जनपथ की राह, बिलखते लोकतंत्र में,
जन-जन का बलिदान, करेंगे मौन रहेंगे.
जन-जन का बलिदान, करेंगे मौन रहेंगे.
लालच मत्सर भूत, नाचता जिनके सिरपर
कौन मसीहा बने, छु्एँगे मौन रहेंगे.
कौन मसीहा बने, छु्एँगे मौन रहेंगे.
काक-बया का बैर, छछूँदर-साँप विवशता,
दुर्योधन हर बार, पलेंगे मौन रहेंगे.
दुर्योधन हर बार, पलेंगे मौन रहेंगे.
छद्म, द्यूत, बल, घात, चाल हो शकुनी जैसी,
शर शैया पर भीष्म, जियेंगे, मौन रहेंगे.
लोकतंत्र में भ्रष्ट, बिना नहीं’ चलता शासन,
भ्रष्टाचारी और, बढ़ेंगे मौन रहेंगे.
20 नवंबर 2016
सान्निध्य स्रोत: तैलंगकुलम् का नवम्बर-16-जनवरी-17 अंक प्रकाशित
सान्निध्य स्रोत: तैलंगकुलम् का नवम्बर-16-जनवरी-17 अंक प्रकाशित: नवम्बर:2016-जनवरी:2017 का अंक We're sorry, your browser doesn't support IFrames. You can still visit this item. , however. E...
18 नवंबर 2016
हास नहीं' हो
सुमेरु छंद में गीतिका
मापनी- 1222 1222 12
पदांत - नहीं' हो
समांत - आस
कभी अपघात का
अहसास नहीं' हो
कभी प्रतिघात का
उल्हास नहीं' हो
नहीं जीवन सफर
में हो अकेला,
कभी जजबात का
परिहास नहीं' हो
अगर तूफान आए
साहिलों पर,
कभी इस घात का
उपहास नहीं' हो
कहीं जीवन
जिगीषा की निशा हो,
कभी व्यतिपात
का उपवास नहीं' हो
चलो ‘आकुल’ बदी
का उत्स देखें,
कभी शह मात का
इतिहास नहीं' हो15 नवंबर 2016
सान्निध्य सेतु: प्रख्यात साहित्यकार, पत्रकार उपन्यासकार स्व. लज...
सान्निध्य सेतु: प्रख्यात साहित्यकार, पत्रकार उपन्यासकार स्व. लज...: प्रख्यात साहित्यकार, पत्रकार उपन्यासकार स्व. लज्जाराम मेहता समारोह सम्पन्न स्मृति पुरस्कार श्री ‘मयूख’ को. पं0 लज्जाराम पर श्री...
14 नवंबर 2016
आग जलाते हैं (ग़़ज़ल)
अपने मतलब से इंसाँ क्यों नफरत की आग जलाते हैं.
ये कैसा पागलपन है क्यों दहशत की आग जलाते हैं.
नफरत की दुनियाँ में क्या अब रह गये यही बाकी रस्ते,
मानवता पानी पानी क्यों वहशत की आग जलाते हैं.
यह जग इंसानों की बस्ती सब अपने कौन पराये हैं,
हर वक्त यही मसलों से क्यों गुरबत की आग जलाते हैं.
कब सूरज धरती चाँद सितारे फुरकत की भाषा बोले,
फिर बाँटें धरती को वेे क्यों फुर्कत की आग जलाते हैं.
क्यों न हम सभी मिलजुल कर, मोहब्बत की आग जलाते हैं
12 नवंबर 2016
500 व 1000 के नोटों बंद के ऐलान पर 3 दोहा मुक्तक
1
हजारी नोट
आया है तूफान
फिर, बदले भारी नोट.
काले धन के
फेर में, धुले हजारी नोट.
ई-नोटों से ना
कभी, लगे करारी चोट.
2
छोटे
छोटे नोट
बचाइये, रुपये रखो अकूत.
ना चिंता
नुकसान की, ना हो भय का भूत.
छोटी छोटी
खुशी से, मिलता खूब सुकून
छोटेे होतेे घरों में, सबसे प्यारेे पूत.
3
उधार
देता छप्पर
फाड़ के, देता जब भगवान
सिद्ध किया जब
हो गए, छोटे भी धनवान
कहते हैं व्यापार का, है उधार प्रतिभान.
सेठ बने सौभाग्य से, विद्या से विद्वान.अकूत- बेहिसाब, अपरिमित; प्रतिभान- विश्वास.
11 नवंबर 2016
आगे बढ़ो
छंद-
गीतिका छंद
पदांत-
आगे बढ़ो
समांत-
बे.....अक
मापनी
2122
2122 2122 212
गलतियों को
भूल कर तुम, बेहिचक आगे बढ़ो.
हादसों को भूल
कर तुम, बेझिझक आगे बढ़ो.
पीछे’ मुड़ के देख कर तुम डगमगाना मत कभी
फासलों को भूल
कर तुम, बेछिटक आगे बढ़ो.
बारिशों के मौसमों में, आँधियों से क्या गिला,
मुश्किलों को
भूल कर तुम, बेखटक आगे बढ़ो.
हाथ पर रख हाथ बैठे, तो नहीं अवसर मिलें,
गर्दिशों को
भूल कर तुम, बेधड़क आगे बढ़ो.
बात हो जब जिंदगी औ मौत की ‘आकुल’ सुनो,
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