मापनी-
221 2122 221 2122
पदांत-
रही है
समांत-
आ
परियों
के’ देश से क्या धरती पे’ आ रही है
इतना
बता ए’ तितली हमको तू’ भा रही है
तेरे
हैं’ पंख इतने सुंदर व रँग बिरंगे,
इठलाती’
नाचती तू क्या गीत गा रही है.
हर
फूल से लगा क्यों रिश्ता ते’रा पुराना,
फूलों
से’ अंग लग कर गुलशन से’ जा रही है.
है
कौन वो चितेरा, जिसने तुझे सजाया ,
उसकी
कला गजब तेरे तन पे’ ढा रही है;
जब
सुन चुकी पलट के बोली वो’ मुस्कुरा कर,
सौग़ात
ये प्रकृति की धरती से पा रही है.
संदेश
मैं प्रकृति का आई यहाँ बताने,
मानव की’ बेरुखी ही धरती को’ खा रही है.
खो
जाउँगी न भू पर यदि स्वच्छता रहेगी,
इस डर
से तितलियों में मायूसी’ छा रही है.
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
गुरुवार 24 मई 2018 को प्रकाशनार्थ 1042 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।
प्रातः 4 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक अवलोकनार्थ उपलब्ध होगा।
चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
सधन्यवाद।
बहुत खूबसूरत रचना खूबसूरत तितली सी ....साथ में प्रकृति का सार्थक संदेश....
जवाब देंहटाएंवाह!!!
तितली के सुंदर और कोमल पंखों जैसी सुंदर रचना | सादर शुभकामनाये |
जवाब देंहटाएंबचपन में तो हम तितलियों को छोटी छोटी परियाँ ही कहते थे... कौन ऐसा होगा जिसने बचपन में तितली पकड़ने की कोशिश ना की होगी। बहुत खूब लिखा है आपने। सादर।
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंआभार मित्र
हटाएंअच्छा सन्देश, अच्छी कविता !
जवाब देंहटाएंबहुत खूब प्रकृति से जोड़़कर दिया संदेश..कि मैं प्रकृति का आई यहाँ बताने, मानव की’ बेरुखी ही धरती को’ खा रही है.
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