घाव देती है मुहब्बत (गीतिका)
छंद- मनोरम
पदांत- है
समांत- अगी
हो न हो यह बानगी
है.
सँभलना दिल की लगी
है.
दर्द दे के जाए’गी
यह,
यह किसी की कब सगी
है.
फैसला तो मौत
करती,
दंड देती ज़िंदगी
है.
घाव देती है मुहब्बत,
दाम लेती खानगी
है.
जो मिला संतोष कर
तू,
काम आती सादगी है.
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