आधार
छंद- आल्ह.
शिल्प
विधान- मात्रा भार- 31. 16, 15 पर यति, अंत 21
पदांत-
करती छंद समाज
समांत-
इत
कविता
तू माँ के जैसी है,
पोषित करती छंद समाज.
कभी गीतिका कभी गीत से, शोभित करती छंद समाज.
कभी गीतिका कभी गीत से, शोभित करती छंद समाज.
जन्म
दिये तूने शब्दों से,
किसी विधा से रखा न वैर
छंद-मुक्त या छंद-युक्त हो, बोधित करती छंद समाज.
छंद-मुक्त या छंद-युक्त हो, बोधित करती छंद समाज.
बनी
हाइकू, बनी माहिया, तांका कभी बनी नवगीत,
भिन्न शब्द-पुष्पों से सुरभित, मोहित करती छंद समाज.
भिन्न शब्द-पुष्पों से सुरभित, मोहित करती छंद समाज.
महाकाव्य
या खंड-काव्य हो,
गद्य-पद्य का विरचित रूप,
पद्य, श्लोक, मुक्तक को रचती, योजित करती छंद समाज.
पद्य, श्लोक, मुक्तक को रचती, योजित करती छंद समाज.
‘आकुल’ कविता मूल काव्य का, रूप
विलक्षण आद्योपांत.
कविता ही विकल्प है सबका, घोषित करती छंद समाज.
कविता ही विकल्प है सबका, घोषित करती छंद समाज.
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