गीतिका
अब
भी आती याद गाँव की चूल्हे की रोटी.
घर-भर
खाता साथ बैठ के, चूल्हे की रोटी.
ले
फटकारे राख झाड़ के, घी चुपड़े थोड़ा,
टुकड़े
कर माँ सदा बाँटती, चूल्हे की रोटी.
सी-सी
करते बाट जोहते, खाते साग निरा,
आएगी
अब सौंधी-सौंधी, चूल्हे की रोटी.
गीली-सूखी
लकड़ी से जब, सुलगाती चूल्हा,
धूँए
बीच महकती देखी, चूल्हे की रोटी.
चौका
बरतन, दूध दोहना, कुँए से पानी,
गो-सानी,
माँ के हिस्से थी, चूल्हे की रोटी.
क्या
था जाने मन में उस दिन, संझा कम खाया,
जब
देखा था मैंने माँ को, बिन खाए सोता,
चुपके
से माँ को जा दे दी, चूल्हे की रोटी.
गंगा
जमना बह निकली तब, समझ न पाया मैं,
ममता
में भीगी थी कितनी, चूल्हे की रोटी.
माँ
कहती थी जब भी चूल्हा, मिट्टी से पुतता,
पके
अग्निपथ में जीवन ज्यों, चूल्हे की रोटी.
भूली
बिसरी माँ की यादें, अब भी जेहन में,
भर
आतीं आँखें जब देखूँ, चूल्हे की रोटी.
अति सुन्दर! बधाई !!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर गीतिका है । "चूल्हे की रोटी" यह शब्द मुझे मेरे बचपन में ले गया, जब हम दादी के गाँव जाते थे और नानी के हाथ की बनी चूल्हे की रोटी खाते थे ।
जवाब देंहटाएंएक सन्दर्भ बहुत मार्मिक है -रोटी छुपाकर रांत को भूखी माँ को खिलाना ।