गीतिका
छंद-
दिग्पाल छंद
221
2122 221 2122
कलियों
ने’ छिप के’ देखे अपने नए दिवाने.
भँवरों
ने’ आ के’ जब से छेड़े नए तराने.
फूलों
से’ चार होतीं आखें निहार कर ही,
कलियाँ
कई दिवानी भँवरे लगीं रिझाने.
कलियाँ
सभी बनेंगी शृंगार दुलहनों का,
आने
लगी बहारें बनने लगे फसाने.
फूलों
को बाग़ ने भी मुसका के दी विदाई
कलियाँ
नहीं मिली थीं करके कई बहाने.
काँटों
भरी डगर है कलियों, मुहब्बतों की,
चलना
सँभल सँभल कर, पाओगी’ तुम ठिकाने.
हम
तो हैं’ ख़ार यूँ ही बदनाम गुलशनों में,
हमसे
ही’ तो रहे हैं, गुलज़ार आशियाने.
‘आकुल’
कभी रहो तो काँटों के बिस्तरों पर,
विश्वास
है झुकेंगे इक दिन कभी ज़माने.
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