21 फ़रवरी 2018

भँवरों ने आके जब से छेड़े नए तराने (गीत)

(छंद- दिग्‍पाल- 221 2122 221 2122)

कलियों ने’ छिप के’ देखे अपने नए दिवाने.
भँवरों ने’ आ के’ जब से छेड़े नए तराने.
फूलों से’ चार होतीं आखें निहार कर ही,
कलियाँ कई दिवानी भँवरे लगीं रिझाने.

कलियाँ सभी बनें अब शृंगार दुलहनों का,
सखियाँ करेंगी अब सब मनुहार गुलशनों का
आने लगी बहारें बनने लगे फसाने.
भँवरों ने’ आ के’ जब से........’’

फूलों को बाग़ ने भी मुसका के दी विदाई.
मुरझाने’ से कहीं है अच्‍छी ते’री जुदाई.
कलियाँ नहीं मिली थीं करके कई बहाने.
भँवरों ने आ के जब से.........’’

तन्‍हा सफर रहा है कलियों, मुहब्‍बतों का,
बाजार भी रहा है सदियों से’ अस्‍मतों का 
मिलना सँभल के’ उनसे लगने लगे जो’ भाने
भँवरों ने आ के जब से.........’’

हम तो हैं’ ख़ार यूँ ही बदनाम गुलशनों में,
कलियाँ कहाँ सुखी हैं मधुशाल मयकदों में.
हमसे ही’ तो रहे हैं, गुलज़ार आशियाने.

‘आकुल’ कभी रहो तो काँटों के बिस्‍तरों पर,
भारी पड़े हैं काँटे शहरों के नश्‍तरों पर.
विश्‍वास है झुकेंगे इक दिन कभी ज़माने.
भँवरों ने आ के जब से.........’’

कलियों ने’ छिप के’ देखे अपने नए दिवाने.
भँवरों ने’ आ के’ जब से छेड़े नए तराने.

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