18 फ़रवरी 2018

मेरे घर में उम्र हुई (ग़ज़ल)

ग़ज़ल

मेरे घर में उम्र हुई उदासी की रहगुज़र* है.
अभी भी ज़िंदगी लिए आगोश में पसमंज़र* है.

ऐसा भी नहीं कफ़स* में गरमियाँ नहीं हैं मेरे,
इस फ़ारूक़े-ज़िंदग़ी* में ख़ामोशी का मंज़र* है.

रही सभी की नज़रों में वह ख़ार* सी खटकती,
कभी कभी लगता सबकी गिरह* में छिपा ख़ंजर है.

गूँजती हैं गजर* की आवाज़ें अब भी कानों में,
हक़ीक़त में हुई लिए सवालात हर इक फ़जर* है.

डूबते को तिनके का सहारा मिले, मगर घर में,
आज भी मौज़ूद तूफ़ाँ में मिला टूटा शजर* है.

सितारे न चाँद की न आफ़ताब* की मेहरबानी,
इसलिए उनका सभी से दूर ही होता बसर है.

ख़ुशनसीब हूँ नसीब में कहाँ होता सब के मगर,
हर मोड़ ‘आकुल’ ज़िंदगी ने पाई बुरी नज़र* है.

*संदर्भ- रहगुज़र- जीने की राह. पसमंज़र- शर्मिन्‍दगी. कफ़स- पिंजरा (यहाँ शरीर रूपी पिंजरा जिसमें रूह क़ैद है) फ़ारूके ज़ि‍दगी- सच और झूठ को बाँटता जीवन. मंज़र- वातावरण, हालात. ख़ार- काँटा.गिरह- गाँठ. शजर- पेड़. गजर- एक नियत अवधि में बजने वाला घंटा. फ़जर- भोर. आफ़ताब- सूरज. बुरी नज़र- कुदृष्टि.

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