हरित पीत चुनरी लहराई, वसुंधरा
की जबसे,
हवा चली पुरबा की मेरे, गीत
हुए सिंदूरी ।।
अँगड़ाई लेते फैला कर, पंखी
जब पंखों से
जगता शहर आरती के स्वर,
मंदिर के शंखों से
रवि आरूढ़ रश्मिरथ पहुँचे,
अरुणाचल पर जबसे
फैली लाली नभ पर मेरे, गीत
हुए सिंदूरी ।।
अँगड़ाई ले कर कलियाँ भी
खिलती हैं मधुबन में
केसर फैले महके कण कण
प्रकृति के आँगन में
प्रणयामृत पीते देखा है,
कलिकाओं को जबसे,
पा कर अमिय स्वाति से मेरे,
गीत हुए सिंदूरी ।।
शब्द शब्द से नि:सृत होता,
मेरा आत्मनिवेदन
शब्द शक्ति से बहे निरंतर,
माँ मेरा आलेखन
शब्दों को बंधों में रच कर,
लिखी गीतिका जबसे,
छंदों में निबद्ध सब मेरे,
गीत हुए सिंदूरी ।।
लौटे भर उल्लास सभी जब श्रम
बिंदु ले घर को.
नव आशा ले पशुधन पंखी गोधूलि
में घर को
देखी नभ पर वही अरुणिमा, अस्ताचल
में जबसे,
उसी लालिमा से नित मेरे, गीत
हुए सिंदूरी.
वन-वन भटके क्यों मृग उसकी,
नाभि बसी कस्तूरी.
राम-राम करती क्यों भटके,
पेड़-पेड़ चिंखूरी.
मरु
उद्यान बने हैं सींचे, अंत:सलिला जबसे,
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