छंद सार. विधान 16, 12 पर यति, अंत 2 गुरु से.
मात-पिता की छाँव मिले मैं, तितली सी बन जाऊँ.
प्रेम, स्नेह की ठाँव मिले मैं, तितली सी इठलाऊँ.
पितु से प्रीति व संस्कारों से, बनूँ सुसंस्कृत माँ सी,
गुरु से ज्ञान मिले हर रँग में, तितली सी रँग जाऊँ.
बाबुल की बगिया में जैसे, मैं स्वच्छंदित घूमी,
वैसे ही मेरे घर में मैं, तितली सी रह पाऊँ.
कितनी ही ऊँची उड़ान हो, लौटूँ तो स्वागत हो,
स्वाभिमान से छूने को नभ, तितली सी उड़ जाऊँ.
मृगशावक जंगल में जैसे, भरते खूब कुलाँचें,
मृगमरीचिका में भी चंचल, मैं तितली कहलाऊँ.
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