मुक्तक (छंद आल्ह)
गाँव शहर को भाग रहे थे, जैसे छूटी नाक-नकेल ।
परंपराएँ, शिक्षा बदलीं, दकियानूसी मिटी लकीर,
कंटकीर्ण राहों पर भी थी, उम्मीदों की रेलम-पेल ।1।
एक समय था बीत रहा था, बचपन सबका दिशाविहीन ।
खेल रहा था समय खेल कुछ, देख रहे थे मौन अधीन ।
आज समझ आया क्यों पिछड़े, भेड़ चाल में समय गवाँ,
कितना दौड़ें पकड़ न पाएँ, 'आकुल' समय बड़ा संगीन ।2।
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