छप्पय
छंद
1
विक्षोभों से आज, कहीं मौसम बदले हैं।
कहीं बर्फ की मार, समंदर भी मचले हैं।
वक्रदृष्टि को देख, न समझे मौसम मानव।
अहंकार में मस्त बना बैठा है दानव ।
मौसम कोई भी रहे, क्या गर्मी क्या ठंड है।
जो चलता विपरीत है, मौसम देता दंड है।
2
होता इंद्रियनिष्ठ रखे जो मन को वश में।
होता वही बलिष्ठ रखे जो तन को वश में।
समझदार इनसान, रखे प्रजनन को वश में।
पंचतत्व व्यवहार, रखे जीवन को वश में।
होड़ प्रकृति से सर्वदा, जीवन में करना नहीं।
पंचतत्व का संतुलन, जोड-तोड़, सपना नहीं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें