कुण्डलिया छंद
देख कलंकित मौन, शर्म से वह नित गलता ।
दो दिन छिपता शेष, दिनों है रूप बदलता ।।
1
रूप बदलता चाँद नित, युगों-युगों से रोज ।
नहीं चाँदनी ने कभी, ढूँढ़ा करी न खोज ।
ढूँढ़ा करी न खोज, कलंकित क्यों है चंदा ?
कौन है वह सौतन, जिसने डाला है फंदा ? देख कलंकित मौन, शर्म से वह नित गलता ।
दो दिन छिपता शेष, दिनों है रूप बदलता ।।
2
रूप
बदलते देख भी, दो दिन रह परदेश ।
बदली
प्रकृति न चाँद ने, बदला ना परिवेश ।
बदला
ना परिवेश, तभी जग प्रेम विरोधी ।
राधा
मीरा हीर, चलीं हर पथ अवरोधी. ।
भक्ति,
शक्ति और प्रेम, अग्निपथ पर ही चलते ।
लिखता
हर इतिहास, प्रेम के रूप बदलते ।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें