छंद- विष्णुपद
विधान- 26 मात्रा, 16, 10 यति अंत
गुरु से
पदांत- है
समांत- अहती
जो जीवन भर ही पन्नों में, बँध कर गहती है.
दुनिया
पोथी या किताब या, पुस्तक कहती है.
होगी सिद्ध
एक दिन वह भी, अभिलाषा लेकर,
जो शब्दों-वर्णों
का बोझा हँस कर सहती है.
शिल्प-कथ्य
से शृंगारित हो, हाथों में आती,
वाणी से
जिसकी रस धारा, प्राय: बहती है.
मर्म पुस्तकों
का शिक्षक या शिल्पकार जानें,
इक से रूप
लिया दूजे के, रँग में लहती है.
सभी ग्रंथ
प्राचीन धरोहर, आज पुस्तकों में,
दुनिया
में पुस्तक की थाती सबसे वृहती है.
रखें सहेज
पुस्तकालय में, ससम्मान जिसको,
रहे
सुरक्षित आवश्यकता, इसकी महती है.
लिखी हुई होती
पृष्ठों में, वाणी अमृत सी,
ईश्वर का
है वास जहाँ पर, पुस्तक रहती है.
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