गीतिका
छंद- विष्णुपद सम मात्रिक
पदांत-
में
समांत- आनी
मच्छर कभी न घुस पाता है, मच्छरदानी में ।
भिन भिन करता मारा जाता, है नादानी में ।
अहंकार करना न कभी भी, अपनी प्रतिभा पर,
डूबा सदा भार से अपने, पत्थर पानी में ।
शोर करे सिक्का कागज की, मुद्रा चुप रहती ।
मूल्य बढ़े तो अंकुश लगता, जाता बानी में ।
चल तू कभी-कभी अंधा बन, मुँह को भी सी कर,
जैसे चक्कर बैल लगाता, अंधा घानी में ।
कई दुखी हैं सुखी देख कर दुनिया दूजे की,
जीना सार्थक कर आया इस दुनिया फानी में ।
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