मापनी- 2212 122 2212 122
पदांत- रहे हैं
समांत- अड़क
पदांत- रहे हैं
समांत- अड़क
छेड़ें न पर्वतों को, पर्वत तड़क रहे हैं।
सड़कें न पुल बनाएँ, जंगल भड़क रहे हैं।1।
सड़कें न पुल बनाएँ, जंगल भड़क रहे हैं।1।
दर घर गँवा रहे उन, रहवासियों से’ पूछो,
आँखों में रात बीतें, हर दिन कड़क रहे हैं।2।
आँखों में रात बीतें, हर दिन कड़क रहे हैं।2।
हर साल हों तबाही, फिर भी नहीं सँभलते,
अब पर्वतों की बारी, मौसम हड़क रहे हैं।3।
अब पर्वतों की बारी, मौसम हड़क रहे हैं।3।
धरती न फट पड़े दे, अनहोनियों को दावत,
दिग्मूढ़ हैं नहीं क्यों, रग-रग फड़क रहे हैं।4।
दिग्मूढ़ हैं नहीं क्यों, रग-रग फड़क रहे हैं।4।
सीने न पर्वतों के, चीरो बहुत हुआ अब,
छेड़ो न वादियों को, पत्ते खड़क रहे हैं।5।
छेड़ो न वादियों को, पत्ते खड़क रहे हैं।5।
अब हो निसर्ग ऐसा, सब स्वर्ग कह सकें जो,
हर मोड़ की गवाही, देते सड़क रहे हैं।6।
हर मोड़ की गवाही, देते सड़क रहे हैं।6।
पीढ़ी न आज झेले, अनहोनियाँँ करो कुछ,
कब से सभी प्रदूषित, कण कण गड़क रहे है।7।
कब से सभी प्रदूषित, कण कण गड़क रहे है।7।
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