छंद- सार
समांत- ईज
पदांत- रहे हैं
पायेंगे हम फसलें जैसे, बोते
बीज रहे हैं.
हमने ही तो खान-पान भी,
रहन-सहन भी बदला,
दोष किसे दें हम ही अपसंस्कृति
के मरीज रहे हैं.
हर युग में अनुशासनहीन बने
तब ही युग बदले.
हम ही तो हर बार पार, करते
दहलीज रहे हैं.
रामायण, गीता कुरान,
गुरुग्रंथ, बाइबिल सबके
मर्यादा, प्रेम, सुसंस्कारों,
की तजवीज रहे हैं.
क्यों दोषी बाजार हों, अपनी,
फितरत भी तो देखें
जिसको अवसर मिला छिपाते, सब
खेरीज रहे हैं.
ऐसा नहीं कि आज ही हमने
अपनापन है खोया,
धन बल के कारण हर युग में,
दास कनीज रहे हैं.
महत्वाकांक्षा, धन लोलुपता,
उच्छृंखलता दोषी
जिसके कारण बद से बदतर व
बदतमीज हुए हैं.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें