गीतिका
छंद-
आवृत्तिका/सार्द्ध चौपाई
पदांत-
जैसे भी हो
समांत- आरी
जीवन में
बनना संस्कारी, जैसे भी हो।
संस्कारों
से बनना भारी, जैसे भी हो।
क्षिति,
जल, पावक, गगन, समीरा, मूल जगत् के,
इनका रहना
तू बलिहारी, जैसे भी हो।
सदा बोलना
मीठी बोली, जब भी बोले,
बोली
से न लगे चिनगारी, जेसे भी हो।
पंच
इंद्रियों से है तन की, शोभा न्यारी,
इनसे ना हो
बस लाचारी, जैसे भी हो।
खुशी मनाते
छोटी-छोटी, अपनों के सँग,
गुजरे बस
जीवन की पारी, जैसे भी हो ।
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