गीतिका
छंद-
विधाता
मापनी- 1222 1222 1222 1222
पदांत- होगा
समांत-अना
घिरा है आग
की लपटों से भारत साधना होगा ।
लगी भीतर भी' है इक आग यह तो मानना होगा।
अभी तो लुट
रही हैं नारियाँ इक दिन लुटोगे तुम,
सम्हल जाओ रहो इकजुट कि अरि को हाँकना होगा।
न बंदरबाँट
की हो अब सियासत वोट की खातिर,
न आरक्षण न गणना जाति खूँटी टाँगना होगा।
न हो अब शंख
की ध्वनि कर्णभेदी बाँसुरी के स्वर,
न ऐसा हो कि फिर ध्वज का सुदर्शन थामना होगा।
मापनी- 1222 1222 1222 1222
पदांत- होगा
समांत-अना
लगी भीतर भी' है इक आग यह तो मानना होगा।
सम्हल जाओ रहो इकजुट कि अरि को हाँकना होगा।
न आरक्षण न गणना जाति खूँटी टाँगना होगा।
न ऐसा हो कि फिर ध्वज का सुदर्शन थामना होगा।
छॅटें अब
युद्ध के बादल प्रकृति से हो यही विनती,
बजे बस चैन की बंसी ये’ संकट टालना होगा।
बजे बस चैन की बंसी ये’ संकट टालना होगा।
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