छंद-
सार
विधान-
16, 12. अंत 22
पदांत-
खड़े हैं
अधरशिला
जैसे ना जाने, कितने शिखर खड़े हैं.
चँवर ढुलाते रहें राह में, जैसे शजर खड़े हैं.
चँवर ढुलाते रहें राह में, जैसे शजर खड़े हैं.
तूफानों
झंझाओं में वे ढहें,
भले ही जब-तब,
बचे हुए सब तीक्ष्ण शरों से, फिर से प्रखर खड़े हैं.
बचे हुए सब तीक्ष्ण शरों से, फिर से प्रखर खड़े हैं.
बर्फीले
सरहद के टीले, मरुधर सीमाओं पर,
लिए बाज सी दृष्टि वीर सब, जागे निडर खड़े हैं.
लिए बाज सी दृष्टि वीर सब, जागे निडर खड़े हैं.
अब
आतंकवादियों को जा, उनके ही घर फोड़ा,
तोड़ेंगे विषदंत सभी के, तन कर अगर खड़े हैं.
तोड़ेंगे विषदंत सभी के, तन कर अगर खड़े हैं.
कभी
करी है घात सामने,
से अब तक ना ‘आकुल’,
अब ठानी है छोड़ेंगे ना, कोई कसर खड़े हैं.
अब ठानी है छोड़ेंगे ना, कोई कसर खड़े हैं.
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