गीत
चाह
नहीं है देखूँ अपनी छवि दर्पन में।
चाह यही सखि देखूँ पी की छवि दर्पन में।
मोहिनी सूरत उनकी
छाप
तिलक सी छपे
सोहनी मूरत उनकी
सागर
सी गहरी
आखों में डूब न जाऊँ
कैसे
भी छा जाए उनकी छवि तन मन में।
चाह यही सखि देखूँ..........
आँख
मिलाऊँ रोम रोम
पुलकित हो जाते
कहना
चाहूँ कुछ का कुछ
ये लब कह जाते
रह
रह कर स्पर्श शरारत
सा लगता है
देख
रही हूँ चंचलता उनकी नैनन में।
चाह यही सखि देखूँ..........
लय
बढ़ती जाती धड़कन की
ना जाने क्यों
गहराता
स्पर्श न वश में
तन जाने क्यों
ये
शृंगार चले यूँ ही
अब रैन न बीते,
चाह यही सखि देखूँ..........
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