समांत-आर
सूर तुम सागर हो, छंद का, सृजित संसार हो.
भक्ति के हर छंद, रत्नों से, भरा आगार हो.
अंध हो पर अंधता को, हर दिया, तुमने हरा,
भक्ति चाक्षुस यज्ञ की तुम, सिद्ध समिधा डार हो.
रूप और लावण्य रचा, राधिका का छंद में,
रचा कृष्ण का आनंद हो, रास या विहार हो.
कृष्ण की लीला रचीं, हैं आज भी, मोहित सभी,
जान पाया जग, कि तुम तो, छंद पारावार हो.
दृष्टांत हो तुम तो, हे! सूर, है नमन तुमको सदा,
छंद से 'आकुल' डरे क्यों, तुम जो कर्णधार हो.
सूर तुम सागर हो, छंद का, सृजित संसार हो.
भक्ति के हर छंद, रत्नों से, भरा आगार हो.
अंध हो पर अंधता को, हर दिया, तुमने हरा,
भक्ति चाक्षुस यज्ञ की तुम, सिद्ध समिधा डार हो.
रूप और लावण्य रचा, राधिका का छंद में,
रचा कृष्ण का आनंद हो, रास या विहार हो.
कृष्ण की लीला रचीं, हैं आज भी, मोहित सभी,
जान पाया जग, कि तुम तो, छंद पारावार हो.
दृष्टांत हो तुम तो, हे! सूर, है नमन तुमको सदा,
छंद से 'आकुल' डरे क्यों, तुम जो कर्णधार हो.
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