एक हास्य
फिल्म ‘गोलमाल’ में नायक अमोल पालेकर, नायिका बिंदिया गोस्वामी के प्रश्न
‘आपका नाम क्या है?’ के प्रत्युत्तर में पूरा शरीर हिलाते हुए, हाथ मटकाते
हुए, अपने अंदाज में कहता है- ‘What’s the name after all.’ यानि ‘आखिर नाम
में क्या रखा है !!’
अरे, नाम में तो बहुत कुछ रखा है, नाम में मिठास है, नाम में आनंद, मनोविनोद है, नाम से धर्म की पहचान होती है, नाम प्रकृति और आस्था से जुड़ा है. दक्षिण में तो नाम के साथ गाँव, शहर का नाम तक जुड़ा होता है, हमारे गुजरात राज्य में नाम के साथ पिता का नाम जुड़ा होता है, हर नाम के साथ जाति सम्बोेधन तो आम बात है. 'आरक्षण' को तो नाम व सरनेम से ही पहचाना जा सकता है. जिस दिन सुनामी तूफान पहली बार आया, उस दिन चीन, जापान ही नहीं विश्व में जन्मे लड़के-लड़कियों के नाम सुनामी रख दिये गये. फिल्म ‘बॉडिगार्ड’ में एक हास्य कलाकर का नाम ‘सुनामी रखा गया. तूफानों के नाम रखने का भी वहाँ की चर्चित जगहों आदि पर रखने का चलन है. जहाँ तक हास्य और व्यंग्य या मनोविनोद की बात है, नाम तो बहुत चमत्कारी होता है, विस्मयकारी ऊर्जा देता है, जीवन देता है, ईश्वर तक पहुँचाता है.
एक प्रख्यात दैनिक अखबार के बुधवार के संस्करण में एक लघुकथा में पढ़ा, मास्टरजी ने बच्चे से पूछा- ‘तुम्हारी माँ की सहेलियों के नाम बताओ.’ बच्चे ने सहज और सत्य कह दिया- ‘मास्साब, एक का नाम ‘संतरा’, एक का नाम ‘मेवा’ है. हँस लीजिए, पर यह सही है, अपने आस-पास, पास-पड़ौस, रिश्तेदारों, पहचान वालों के प्यार से पुकारे जाने वाले या वास्तविक नाम तो परखिये, पटाखे या बम की तरह हँसगुल्ले छोड़ने वाले नाम मिलेंगे, मैं अपने आस-पास की ही बात करता हूँ, देखें, मेरे रिश्तेदार के घर में एक किरायेदार की बेटी को ‘कचौरी’ नाम से बुलाते हैं. ये क्या बात हुई? अरे भाई, सच है, कोई तो कारण रहा होगा, हाँ, कारण रहा था, हमारा शहर 'कोटा' कचौरी के लिए प्रख्यात है, एक दिन में एक कढ़ाई में एक घान में 100 से 150 कचौरी पकती हैं. पूरे शहर में एक दिन में एक लाख से भी ज्यादा की खपत है, आज वह लिम्का बुक के रिकॉर्ड में दर्ज है. यह हालात, आज जनसंख्या की वजह से नहीं, बरसों से है, बचपन में एक बार एक बच्ची ‘कचौरी’ के लिए इतनी मचली कि अपनी तुतलाई आवाज में समझा ही नहीं पाई कि उसे कचौरी चाहिए, वह रोती रही, लोग मनाते रहे, वह लाल हो गई, पर चुप नहीं हुई, बिफर गई. सवेरे का समय था, नाश्ते के लिए जैसे ही कचौरियाँ आईं, वह चुप, तब से उसका नाम ‘कचौरी’ रख दिया, जब भी वह मचलती, उसे ‘कचौरी’ का लालच दिया
जाता, वह मान जाती, चुप हो जाती. ऐसे ही
एक असामान्य बच्चे का बचपन से ही नाम ‘समौसा’ रख दिया, उसका चेहरा त्रिकोण
था, यानि सिर न तो गोल था न सामान्य , सिर कूबड़ की तरह उठा हुआ था, आलू
का शौकीन, वह बच्चा’ समोसे का शौकीन भी था. धीरे-धीरे उसकी ‘समौसा’ के नाम
से पहचान बन गई. एक रसोई बनाने वाली महिला के घर में औरतों के नाम भी इसी
तरह के पाये गये, एक का नाम बादाम, एक का नाम काजू, एक का नाम इमरती. नाम
तो आस्था, प्रकृति से भी जुड़े हुए होते हैं, उस पर तो कोई नई हँसता.
गुलाबो, चमेलीबाई, केला, मोगरी, छदामी, चमचम, कुमकुम. और तो और छोडि़ये
यू.पी. की हमारी पूर्व मुख्य मंत्री राबड़ी देवीजी का नाम ही ले जीजिए.
राबड़ी यानि लापसी, राब, पतला सीरा. नाम तो आपने लड्डू, रबड़ी भी सुने ही
होंगे.
सेलिब्रिटीज, विशेष रूप से बॉलिवुड के कलाकारों के नाम के साथ भी इत्तेफाक देखिए, बड़े विचित्र नाम मिलेंगें, फिल्मों में भी ऐसे नामों को दे कर हास्य उत्पन्न किया जाता है. हास्य अभिनेता जॉनीवॉकर, पोल्सन, केश्टो का नाम एक मिसाल है. घर के नामों में सबसे विचित्र नाम एक फिल्म अभिनेत्री का है जिसे ‘लोलो’ कहते हैं, एक नायक का नाम ‘बोबो’ है, फिल्म ‘कभी खुशी कभी गम’ में नायक का नाम लड्डू और एक नायिका का नाम ‘पूजा’ से ‘पू’ के नाम से पुकारने का अंदाज देखिए. इन शब्दों की गंभीरता से विचार कर अर्थ करें तो हँसी भी आएगी, पर अनुशासन है कि मैं उनका अर्थ यहाँ लिख नहीं सकता, खुल कर नहीं तो चुपके-चुपके मन में ही हँस लें उनका अर्थ करके.
शब्दों को बिगाड़ कर बोलने और शॉर्ट कट का भी दोस्तों में चलन गुजरात में सबसे अधिक है. विभाकर को ‘विभ्ला, राणा को ‘राणिया’ अब बताइये, नाम इस लिए चलन में आ जाते हैं कि हम मनोविनोद में इसे स्वीकार कर आया-गया कर देते हैं. परीक्षा में सप्लीमेंटरी को गुजरात में ‘एटीकेटी’ कहना मुझे आज तक समझ नहीं आया. आज कम्प्यूटर सामान भी चलन के कारण ही प्रख्यात हुए हैं, जैसे माउस आदि.
धीरे-धीरे तकनीक इतनी बढ़ी है कि लोगों की स्मृति/याददाश्त कम होती जा रही है, स्मार्ट फोन यानि मोबाइल फोन ने जब से आश्चर्यजनक सुविधायें दी हैं, लोग अपने मिलने वालों के नाम पते फोन नं.याद करना भूल गये हैं, जब आवश्यकता ही नहीं रहेगी तो क्या याद रखना, मोबाइल है न. हम बहुत सी चीजें धीरे-धीरे आवश्यकता नहीं होने से भूलते जा रहे हैं, प्रकृति भी वैसा ही अनुसरण कर रही है, हम बंदरों के वंशज माने जाते हैं, बंदरों के पूँछ होती थी, पहले हम चौपाये थे, इसलिए पूँछ की आवश्यकता महसूस होती थी, अब दोपाये हैं और हाथ से जब से काम लेने लगे, पूँछ धीरे-धीरे गायब हो गयी, तकनीकी रूप से हम जबसे उड़ना भी सीखने लगे हैं, तो हो सकता है, धीरे-धीरे हमारे दायें-बायें पंख उगने लग जायें.
हमेशा से विद्वान् कहते आये हैं न कि समय के साथ चलो, तो लो आज की पीढ़ी समय के साथ भागने की कोशिश कर रही है, योगा (योग) से लोग अपने आप को इतना हल्का महसूस करने लगेगें कि हो सकता है, उड़ने की तकनीक हासिल कर लें. समय के साथ चलना है, तो कुछ तो तेजी से पीछे छूटेगा ही. एक बच्चा रखने की होड़ में रिश्ते-नाते, फास्ट फूड और डाइटिंग से स्वाद, अपनी पसंद और रिलेशनशिप के कारण शादी-विवाह का आकर्षण खत्म हो रहा है. और भी बहुत कुछ समय के कारण कमजोर होने को हैं. ‘डैड’ और ‘मॉम’ की तरह रिश्तों में मोम जैसी कोमलता अब खत्म़ हो रही है. समय के साथ चलने के कारण चारों तरफ नश्वरता दिखाई देने लगी है. हम तेजी से कुछ न कुछ भूलते जा रहे हैं.
बहुत शॉर्ट कट करते-करते भी लेख बड़ा हो गया. चलिए, उपसंहार में एक और चौंकाने वाली बात करें और नाम को नमस्कार करे और तकनीक के चमत्कार को नमस्कार करने का समय बहुत जल्द आ रहा है.
अपने बड़ों की ‘समय के साथ चलो’ वाली इस बात को हथौड़े की तरह बार-बार चोट करने से आज की नई पीढ़ी समय के पीछे इतना पड़ गयी कि भूलने की विधा में पारंगत होती जा रही है. तकनीक भी उसका साथ दे रही है. हम तकनीकी में इतना आगे निकल गये आगे कि हमें सिर्फ समय ही याद रहेगा.
एक अंग्रेजी फिल्म ‘टाइम’ देखने का मौका मिले, तो अवश्य देखिएगा. इसमें बताया है कि तकनीक ने जिंदा रहने के लिए समय निश्चित कर दिया. जितना आपके पास समय, उतनी साँसें. तकनीक ने हमारे हाथ की हथेली के नीचे नाड़ी वाले स्थान पर चिप लगा दी और उसमें समय को डिजिटल डिसप्ले की तरह दिखाया है. रिचार्ज करते रहने की सुविधा दे दी. जो जितना समर्थ, उसे काम के बदले कोई रूपया पैसा नहीं बस टॉप अप व रिचार्ज करके आपकी जीवन समय सीमा शरीर में बढ़ा दी जाएगी. डाइटिंग, योगा के कारण आप हमेशा स्वस्थ रहेंगे. आप उतना जिऐंगे जितना आपके पास समय है. इस समय खाते से कुछ भी खरीदने या भुगतान के लिए आपको समय खर्च करना होगा. एटीएम मशीन की तरह रिचार्ज और समय का भुगतान करने की सुविधा जगह-जगह दी है, जिसके लिए लोग मशीन के आगे लाइन लगा कर खड़े हो जाते हैं, हाथ के निशान पर अपनी हथेली रखो और रिचार्ज या भुगतान तुरंत. कोई पासवर्ड नहीं. यात्रा के दौरान आप अपने साथियों के साथ हैं, समय खत्म होने को है और रिचार्ज नहीं करा सकते हैं, तो मित्रों या अपनों से समय उधार भी ले सकते हैं. भू माफियाओं की तरह समय माफियाओं की बाढ़ है. जगह-जगह उनके सेंटर्स हैं. ये लोग कमजोर लोगों को मार-मार कर समय बैंक में अपने समय का इजाफा करते रहते हैं और ब्लैकमेल करते हैं, महँगे दामों में समय बेचते हैं. कहीं पर कभी भी जिसका समय खत्म, मनुष्य लाश बन कर वहीं गिर जाता है. उसे जलाया नहीं जाता, बल्कि उसका विद्युत दाह भी समय बेच कर उसके जानकार करते हैं. अगर कोई नहीं है तो चिप निकाल कर उसके शरीर को जैविक वेस्ट की तरह कचरे के डिब्बे में फैंक दिया जाता है.
यह फिल्म आने वाले उस दौर के लिए हमें सचेत करती है, जब संसार में जन्मी अनेकों संस्कृतियाँ नष्ट हो जायेंगी और केवल समय बचेगा. समय के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं बचेगा. इसके बावजूद भी फिल्म ‘टाइम’ ने एक सर्वोत्तम बात बताई, वह यह कि आप यदि प्रेम करते हैं तो लंबा जी सकते हैं. हर व्यक्ति, जो आपसे प्रेम करता है, आप को मरने नहीं देगा. इसलिए ढाई आखर ‘प्रेम’ नाम को लोगों के नामकरण में सर्वश्रेष्ठ माना गया है, जो प्रेम का प्रकाश फैलाता है. इसीलिए प्रेम आज भी जिंदा है. जब तक प्रेम जिंदा है, हमारी संस्कृति समय को भी पीछे छोड़ने में समर्थ है
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