8 अगस्त 2017

चार मुक्‍तक



रोला मुक्‍तक
गर्मी में ज्यों लाय, पड़ें सरदी में ओले. 
कहीं सताती बाढ़, कहीं दुर्भिक्ष फफोले.  
पतझड़, आँधी, धुंध, प्रकृति के रूप हजारों, 
प्रकृति प्रदूषण त्रस्‍त, धरा नित बदले चोले.

रोला मुक्‍तक
शीतल बही बयार, मेघ गरजे चपला सँग.
आने को बरसात, धरा ने भी बदला रँग.
थलचर, नभचर नीड़, घरोंदे लगे बचाने,
दादुर चहके, मोर, प्रकृति भी नाचे सँग-सँग.

मुक्‍तक  
मधुर क्षणों को लें समेट, कटुता को भूलें. 
भेदभाव को त्‍यागें, मद में कभी न फूलें 
चार दिनों का मेला जीवन जी लें जी भर,  
कर प्रगाढ़ रिश्‍तों को, आसमान को छू लें.

मुक्‍तक  
कटु अनुभव ही सिखलाते जीवन में जीना
सागर से सीखें विष को आजीवन पीना,
जो विष पीते, नीलकण्‍ठ होते जीवन में,
कब थकते हैं श्रमिक बहाते अथक पसीना.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें