दोहा
गीतिका
कंटकीर्ण पथ पर चलें, कहलाते हैं
वीर.
पदांत-
0
समांत-
ईर
जो चलते ले ध्येय वे, बनते सदा
अमीर.
कब सूरज धरती रुकी, रुका न जीवन
चक्र
प्राणवायु देता सदा, कभी न रुका
समीर,
रह आचार-विचार से, कर आहार-विहार,
होता है वह ही सफल, खोये कभी न धीर
रोक सका कब आज तक, उम्र, मौत इनसान,
जीवन एक जिजीविषा, रहता मूर्ख अधीर.
समय रुका कब आज तक, रुकी न तन की
साँस,
रुकना मत नादान तू, सहते रहना पीर
आँखों में सपने लिये, आता है इनसान
चलता है जो अग्निपथ, बनता वही वजीर.
‘आकुल’ चलो न चल सको लिखो बैठ कर
खास,
बनो न बनो कबीर पर बनना नहीं फकीर.
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