मुक्तक लोक चित्रमंथन169 |
पदांत-
फिर से
समांत-
एँगे
हा
सखि, कान्हा गोकुल, कब लौटेंगे फिर से.
मोर,
पपीहा, कोयल, कब चहकेंगे फिर से.
गाय
रँभाएँगीं कब सुनके, धुन मुरली की,
हम
सब के सँग कब, महा’रास रचेंगे फिर से.
नंद
जसोदा मैया, कब से बाट निहारें,
कह
‘बाबा’, ‘मैया’, कब टेर करेंगे फिर से.
नंदगाँव,
बरसाना, वृंदावन सूना है,
गोकुल
के दिन कान्हा, कब बदलेंगे फिर से.
हे
कपोत, तुम दूत बनो, जाओ कह आओ,
एक
बार आजाओ, नहिं रोकेंगे फिर से.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें