गीतिका
छंद- सिंह विलोकित
पदांत- के
समांत- आँत
ना समाज बिन जात-पाँत के।
धर्म नहीं बिन
रीत भाँत के।
साग फसल काटें
गाँवों में,
मिलते ना घर
बिन दराँत के ।
पत्तों की
नस से बनते हैं
धागे
कहलाते हैं ताँत के ।
भोजन हो स्वादिष्ट भले ही,
नीरस हे बिन जीभ दाँत के ।
स्वस्थ अगर
रहना हो आकुल,
रोगी ना
हों पेट, आँत के।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें