18 जुलाई 2024

इक नदी भीतर मेरे बहती, रही।

गीतिका
छंद- नरहरि
विधान- प्रति चरण 19 मात्रा 16, 3 पर यति। अंत लघु गुरु।
पदांत- रही
समांत- अती  
इक नदी भीतर मे'रे बहती, रही।
दर्द मेरा आँख से झरती, रही।
प्यास बुझाई सभी की स्‍वयं, मगर,
आग सीने में लिए जलती, रही।
जंग, बाढ़, तूफानों, बारिश, सभी,
आफतों में आज तक बचती, रही।
रौद्ररूप प्रकृति ने दिखाए, घने,
पीढ़ि‍यों की गलतियाँ ढकती, रही।
रह न जाएँ स्‍वप्न अब मेरे, धरे,
बंधनों में बँध के' भी सजती, रही।
देवियों को पूजते मुझको, सता,
सबका मान हर जगह रखती, रही।
यातना नारी नदी ‘आकुल, कहे,
मौन सहती भाग्‍य को पढ़ती, रही।

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