4 जुलाई 2024

भुतहा नहीं हवेली बस, बंद यह पड़ी है

गीतिका 
भुतहा नहीं हवेली बस, बंद यह पड़ी है।
करते हुए प्रतीक्षा चुप-चाप यह खड़ी है।

प्राचीर है किले सी हैं, द्वार भी तिलिस्मी,
आमद नहीं कहीं से इक, ईंट न उखड़ी है।

बात सच हुई है 'आकुल', बारह वर्षों में,
कहते हैं घूरे की भी, किसमत उघड़ी है।

इक षोडषी नवेली ने, खोल द्वार देखा,
खुश है देख घर को लगी, आँख से झड़ी है।

वही चौक तिबारी वही, तुलसी का चौरा,
धूल अँटी भीत पर एक, तस्वीर जड़ी है।

धूल चढ़ी पगड़ी़, बास्कट, बैंत खूँटियों पर ,
लालटेन फूटी, कोने, पड़ी पलँगड़ी है।

इस घर ने फिर बचपन का, याद दिलाया सब,
कल से आज की जोड़नी, कड़ी से कड़ी है।

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