मुक्तक
1
दोस्त फ़रिश्ते होते हैं, बाक़ी सब रिश्ते होते हैं।
गरिमा खो देते हैं, तब हम रिश्तों को ढोते हैं।
रखें नहीं महत्वाकांक्षा दें साथ घड़ी कैसी भी हो,
दोस्त वही निस्स्वार्थ रहें, ना बीज बैर का बोते हैं।
2
जैसे किस्से देखा करते, पढ़ते सुनते दिन-प्रतिदिन।
इंसाँँ तो अब रिश्तों को, शर्मिन्दा करते दिन-प्रतिदिन।
मित्रों काेे ना दृष्टि लगे हम, गर्व करें उन पर 'आकुल',
नासूरों के जैसे हैं अब, रिश्ते रिसते दिन-प्रतिदिन।
3
वो दोस्त क्या जिसे दोस्ती पर फ़़ख़्र नहीं होता।
दोस्तों के बीच गर दोस्ती का ज़िक्र नहीं होता।
तुम ज़़िन्दा हो मुग़ालते में मत रहना 'आकुल',
मुरदों को करवट बदलने का फ़िक्र नहीं होता।
4
दाेस्त वही जानो जिसमें दोष तक न हो।
दोष मन में दुश्मन है इसमें शक न हो।
दिखती नहीं रिश्तों में कशिश अब 'आकुल',
दोस्त के मीजान पर कभी भी शक न हो।
1
दोस्त फ़रिश्ते होते हैं, बाक़ी सब रिश्ते होते हैं।
गरिमा खो देते हैं, तब हम रिश्तों को ढोते हैं।
रखें नहीं महत्वाकांक्षा दें साथ घड़ी कैसी भी हो,
दोस्त वही निस्स्वार्थ रहें, ना बीज बैर का बोते हैं।
2
जैसे किस्से देखा करते, पढ़ते सुनते दिन-प्रतिदिन।
इंसाँँ तो अब रिश्तों को, शर्मिन्दा करते दिन-प्रतिदिन।
मित्रों काेे ना दृष्टि लगे हम, गर्व करें उन पर 'आकुल',
नासूरों के जैसे हैं अब, रिश्ते रिसते दिन-प्रतिदिन।
3
वो दोस्त क्या जिसे दोस्ती पर फ़़ख़्र नहीं होता।
दोस्तों के बीच गर दोस्ती का ज़िक्र नहीं होता।
तुम ज़़िन्दा हो मुग़ालते में मत रहना 'आकुल',
मुरदों को करवट बदलने का फ़िक्र नहीं होता।
4
दाेस्त वही जानो जिसमें दोष तक न हो।
दोष मन में दुश्मन है इसमें शक न हो।
दिखती नहीं रिश्तों में कशिश अब 'आकुल',
दोस्त के मीजान पर कभी भी शक न हो।
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