छद-
सार, चौपाई+12, अंत वाचिक 22.
पदांत-
हों
वृक्षावलियों
से आच्छादित, हर पथ अब शोभित हों.
धरा
पहन कर विविध चुनरिया, नित लहराये झूमें,
नगर-नगर
अब मलयानिल से, जन जन आनंदित हों.
सत्ता
के गलियारों में फिर, विकसित हो यह धारा,
नंदनकानन
जैसे ही अब, उपनिवेश निर्मित हों,
अभयारण्य
जहाँ पशु पक्षी, विचरें निर्भय हो कर,
ऐसी
ही जीवन शैली के मानक स्थापित हों.
‘आकुल’
जब फूलों से उपवन, हो सकते हैं हर्षित,
जीवन
जीने के कुछ ऐसे विनियम प्रतिपादित हों.
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