2 नवंबर 2017

क्‍यों बदला है अपना पथ (नवगीत)

प्रकृति बदली नहीं मानव ने
क्‍यों बदला है अपना पथ.


युगों से सूर्य ने कभी
नहीं बदला है अपना पथ
बदलता चाँद है लेकिन
नहीं बदला है अपना पथ
प्रकृति के भी सभी मौसम
सदा आते उसी पथ पर,
वही आकाश गंगा है
वही तारों का अपना पथ

नहीं बदले समंदर भी
नहीं बदले दिशा के पथ,
धरा बदली नहीं मानव ने
क्‍यों बदला है अपना पथ.

मगर मानव ने क्यों अब तक
प्रकृति से शांति ना शोधी
पला है जिसके आँगन है
युगों से उसका अवरोधी
हुआ अभिमान धूमिल है
सदा मानव ने ललकारा
न जाने क्यों नहीं भाती
धरा की गंध भी सौंधी

लिया बदला सदा उसने
हैं बदले उसने सौ सौ पथ,
अदा बदली नहीं मानव ने
क्‍यों बदला है अपना पथ.

बदलने से हैं युग बदले
हुई हैं सभ्यतायें नष्ट
महत्वांकांक्षा बढ़ीं
बढ़े हैं आपदायें कष्ट
सदा अभिमान में मानव ने
रौंदी हैं संस्कृतियाँ
बनाता जा रहा है गढ़
लगी जिसमें शिलायें भ्रष्ट

बची है संस्कृति थोड़ी,
मगर है धूल में लथपथ,
समय बदला नहीं मानव ने
क्‍यों बदला है अपना पथ.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें