छंद - लावणी
लगता है आरक्षण इक दिन, हो न कहीं सिर-दर्द सखे.
सर्वधर्म समभाव खत्म हो, बचे न इक हम-दर्द सखे.
बंदर बाँट व्यवस्था के ये, दाँव-पेंच लगते घातक,
मुश्किल दूर हो सकेंगे यूँ, जनता के दुख-दर्द सखे.
बन जाये नासूर न ये इक घाव देश के भीतर ही,
भितरघात क्या कम हैं घर में, और एक यह दर्द सखे.
सरहद से आती हैं लाशें अब भी वीर शहीदों की,
बिना लड़े इस त्रास, यंत्रणा, का क्या है कम दर्द सखे.
संरक्षण हो आरक्षण अब , खत्म हो बढ़े नहीं खाई,
पृथक् राज्य की माँगें क्या कम, और नहीं अब दर्द सखे.
सर्वधर्म समभाव खत्म हो, बचे न इक हम-दर्द सखे.
बंदर बाँट व्यवस्था के ये, दाँव-पेंच लगते घातक,
मुश्किल दूर हो सकेंगे यूँ, जनता के दुख-दर्द सखे.
बन जाये नासूर न ये इक घाव देश के भीतर ही,
भितरघात क्या कम हैं घर में, और एक यह दर्द सखे.
सरहद से आती हैं लाशें अब भी वीर शहीदों की,
बिना लड़े इस त्रास, यंत्रणा, का क्या है कम दर्द सखे.
संरक्षण हो आरक्षण अब , खत्म हो बढ़े नहीं खाई,
पृथक् राज्य की माँगें क्या कम, और नहीं अब दर्द सखे.
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