7 जनवरी 2019

जीवन इक अनजान डगर है (गीतिका)

छंद- ताटंक
विधान- (चौपाई+ 14) अंत 222/वाचिक अनिवार्य. ''चौपाई +'' है, आरंभ चौपाई की लय की भाँति ही हो. इसलिए प्रत्‍येक विषम चरण में आरंभ एवं चरणांत 2/गुरु वाचिक हो. यदि आरंभ त्रिकल से है तो त्रिकल के बाद त्रिकल आना आवश्‍यक है तभी लय बनेगी.

पदांत- है
समांत- ऊरी

जीवन इक अनजान डगर है, चलना भी मजबूरी है.
बिना रुके ही हमको करना, पूरा सफ़र जरूरी है.

अंत समय देखा सबको जब, कोई साथ नहीं आया,
आँखों में आँसू थे पाया, सबकी आस अधूरी है.

नहीं हार का कारण थकना, थकते देखे सागर भी,
देखी संघर्षों में अकसर, नींद हुई काफूरी है.

वही जीतता जो जिंदा है, मौत पराजय की ड्योढ़ी,
निविड़ अँधेरे की सुरंग की, मीलों लंबी दूरी है.

कहने को बलवान सिंह कब, दौड़े चीते सा वह भी,
हाथ पैर हों सौ फिर भी कब, दौड़े कानखजूरी है.

है निर्दिष्टि नियति ही मानो, भ्रमित न हो जीवन में तू,
घाव पालने से अकसर वह, हो जाता नासूरी है.

करले तू प्रयास कितने ही, कर्म प्रमाण मिले सबको,
आता समय सभी का ‘आकुल’, रखना साथ सबूरी है.

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