छंद- लावणी
पदांत- है
समांत- अर
अपनापन ही हर जीवन की, इक अनमोल धरोहर है.
नहीं कभी खाली होता यह, ऐसा प्रेम सरोवर है.
मोह न पाले, भोग न साले, जिसको हर प्राणी प्यारा,
’तेरा तुझको अर्पण’ जीवन जैसे श्वान सहोदर है.
चले अग्निपथ या दुर्गम हों, कंटकीर्ण पथ पगडंडी,
देती है नवऊर्जा उसको, शीतल पवन मनोहर है.
बचा-खुचा खाकर भी देता, अपना श्रेष्ठ जमाने को,
नहीं चाह छप्पन भोगों की, जिसका भोजन चोकर है.
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जो इसमें डूबा वैतरणी, उसने जग में पार करी,
धरती घर, आकाश छत्र ही, यायावर का तो घर है.
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